बुजुर्गों के प्रति हमारा दायित्व

                   — शैलेन्द्र सिंह शैली
    वर्तमान परिवेश में संयुक्त परिवारों का आज विघटन हो रहा है। परिवार की परिभाषा केवल पति पत्नी और बच्चों तक ही सीमित हो गई है। सास ससुर और मां-बाप परिवार की परिधि से बाहर हो चुके हैं।आज  सास ससुर,मां-बाप और दादा-दादी की देखभाल एक अनावश्यक बोझ और अतिरिक्त दायित्व के रूप में रेखांकित किए जाने लगे हैं। नई व्यवस्था में आज हम किस हद तक बुजुर्ग पीढ़ी की आकांक्षाओं व आशाओं पर खरे उतर पा रहे हैं, इसका विश्लेषण निहायत जरूरी हो गया है।
        बुजुर्ग पीढ़ी के हर चेहरे की झुर्रियों में आज उपेक्षा व उत्पीड़न का जो घोर संत्रास उभर रहा है वह मानवीय सभ्यता के मुंह पर करारा तमाचा है।  हमारी संस्कृति ने तो बुजुर्गों को परिवार व समाज में एक उच्चस्तरीय दर्जा दिया है, श्रद्धा व सम्मान का पात्र माना है।लेकिन आज नकारात्मक बदलाव आ गया है जहां पहले बुजुर्गों की उचित देखभाल करना नैतिक व सामाजिक दायित्व था,वहीं आज यह दायित्व अनावश्यक व अतिरिक्त बोझ के रूप में देखा जाता है। हमें विरासत में मिले परंपरागत प्रतिमानों के खंडहर पर पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित नई व्यवस्था की भव्य इमारत खड़ी की जा रही है। जिसमें बुजुर्ग पीढ़ी के लिए कोई भी स्थान नहीं है।
     आज रहन-सहन के तौर-तरीके बदल चुके हैं। अपनी जिंदगी का अधिकांश समय परिवार समाज व राष्ट्र के विकास एवं खुशहाली में लगा चुके हमारे बुजुर्गों को सच्चे स्नेह व सम्मान एवं अनुकूल माहौल की स्वभाविक अपेक्षा रहती है। हमें अपने बुजुर्गों के प्रति अपना कर्तव्य एवं दायित्व निभाना होगा।पाश्चात्य सभ्यता के कारण जिस माहौल में हम ढलते जा रहे हैं उसमें बदलाव लाना होगा और अपने बुजुर्गों की दशा को सुधारना होगा। क्यों ना हम परिवर्तन की यह यात्रा अपने ही घर से शुरू करें और अपना कर्तव्य एवं दायित्व निभाते हुए आज से ही अपने बुजुर्गों को पूरा आदर व सम्मान दें।
लेखक: शैलेन्द्र सिंह शैली
         महेन्द्रगढ़, हरियाणा।
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