हिन्दी तुम कैसी हो ?

           —- डॉ इन्दिरा  गुप्ता  यथार्थ
हे हिन्दी मेरी क्या हो तुम
उलझन भरी पहेली तुम,
जीवन में रही अकेली तुम,
नव दुल्हन नई-नवेली तुम,॥

वफ़ा की सूरत  हो तुम,
कितनी हसीं मूरत हो तुम,
शायद परियों जैसी तुम
जाने हो हिन्दी कैसी तुम ?

तुम मंजिल हो कुछ बातों की,
तुम माला हो एहसासों की,
तुम बोली हो निगाहों की,
तुम रही आरज़ू आहों की,

जब बात कोई बोलती हो,
कानों में रस घोलती हो,
शायद कोयल जैसी हो !
तुम जाने  हिन्दी कैसी हो?

तुम रौशन हुआ चिराग हो,
तुम दया प्रेम और त्याग हो,
तुम मीठी एक मुस्कान हो,
तुम हर दिल का अरमान हो,

तुम साँसों में बस जाती हो,
हंसके सब कह जाती हो,
शायद कविता जैसी हो !
तुम जाने हिन्दी कैसी हो?

हर रूप रंग तुझमें  पाया,
हर लेखन में तेरी छाया,
तुमसे लिखना पढ़ना आया
देख तुझे  दिल भरमाया ।

तुम ह्रदय सिक्त मन भावन सी
बहती  हो  गंगा -पावन सी
शायद देवी जैसी  हो !
तुम जाने हिन्दी कैसी हो?

तुम जाने.हिन्दी  कैसी हो?
मेरे ख्वाबों के जैसी हो॥
तुम हिन्दी मेरी ऐसी हो
मातृ नेह सुख जैसी हो ॥

डॉ इन्दिरा  गुप्ता  यथार्थ

Leave a comment