गिरी और लगी(हास्य रचना)

■ चंचल हरेन्द्र वशिष्ट ■
एक दिन हो गई थी,
घर से निकलने में थोड़ी सी देर,
स्कूल का समय
था आठ बजे का,
पर आठ तो बज चुके थे आज घर पर ही,
पर अब क्या करती खैर झटपट पहुंची,
भागती दौड़ती मैं स्कूल,
आॅफिस में प्रिंसिपल ने
घड़ी की और आँखे घुमाते हुए,मेरी और आंखे घुमाईं
मैं थोड़ा सकपकाई और,
तुरंत उन्हें कारण बताया ; वो बोलीं अच्छा! फिर एक नया बहाना!
मैंने कहा …. जी नहीं मैडम
दर असल मैं गिर गई थी..
और…..लग गई …..!
वो तेवर बदल नरमी से तुरंत बोलीं,अच्छा!ओह कहाँ,कैसे?,चोट ज्यादा तो नहीं आई?
मैंने कहा,कैसी चोट??
मैडम,मैं तो आज बस सुबह उठी ही थी कि
वापस बिस्तर पर गिर गई
और…..
आँख लग गई ….
इसलिए ही देर हो गई ,यह बात सुनते ही वो भी मेरे साथ ज़ोर से खिलखिलाईं।

चंचल हरेन्द्र वशिष्ट
नई दिल्ली

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