सुभाष अरोड़ा

— सुभाष अरोड़ा
श्राध एक याद
मैं रमणी हूं प्रतीक की पत्नी
आज का दिन मेरे लिए बेहद शुभ दिन था।
यहां वृद्ध आश्रम में हर साल मेरा आना होता है और मन से कर्म से मुझसे जो बेहतर बन पड़ता है मैं करती हूं।
खाना खाने से खीर खाने तक सभी वृद्ध व वृद्धाओं को देखती रहती हूं, पता नहीं क्यों एक असीम सी शांति प्रेम की अनुभूति मन में निरन्तर बढ़ती रहती है।
आज मेरी सासु मां का श्राद्ध का दिन था।
मैं उत्तर-प्रदेश से बिलोंग करती हूं और मैंने हिन्दी में एम् फिल किया हुआ था, प्रतीक मेरे पति भी मेरे सहपाठी थे।
बेहद शांत स्वभाव, मिलनसार और सीधे-सीधे, हालांकि वे हरियाणा से बिलोंग करते थे पर हमारे विचार हमेशां मिलते रहे।
और यही कारण बना हमारे विवाह करने का, जीवनभर साथ रहने का।
बस इस अंतर्जातीय विवाह के बारे में मां बाप को बताने में बहुत डर महसूस करते थे चूंकि प्रतीक को मालूम था कि उसकी मां तो यह सब सह लेगी और हमें अपना भी लेंगी पर उसके पिता बेहद गुस्सैल व्यक्ति हैं, अच्छे जमींदार हैं और अच्छे रोबीले भी।
डर तो डर ही होता है, आखिर कब तक छुपाया जाता।
प्रतीक की मां अत्याधिक बिमार हो गई थी और प्रतीक ने अपने गांव आना और मां को देखना जरूरी समझा।
वह अकेला ही गांव आया था और मां की देखरेख में लग गया था, थोड़े ही दिनों में मां भी स्वस्थ हो रही थी चूंकि कभी कभी ममता अपने बच्चों की सूरत देखकर भी अन्दर से खुशी से भर जाती है और स्वस्थ होने का कारण बन जाती है,
मां अब ठीक थी और प्रतीक ने मां को हमारी शादी की बात विस्तार से बता दी कि हम एक-दूसरे से प्रेम करते हैं।
पहले तो मां का मुंह भी कड़वा सा हो गया यह सुनकर और प्रतीक के पिता का स्वभाव देखकर अशांत थी,पर वह कुछ देर बाद शांत हो गई थी।
जीवन के मोड़ के रास्ते खुद मोड़ने कितने मुश्किल होते हैं यह प्रतीक को समझ आ रहा था।
खैर पिता का अच्छा मूड देखकर उनके कानों में भी यह विवाह की बात डाल दी गई।
उनका शांत और सुन्दर चेहरा भी अंगार हो गया था, उनकी उन सभी आशाओं पर पानी पड़ गया था जो उन्होंने अपने मन में संजो रखी थी कि मैंने बेटे को उच्चतर पढ़ाई करने बाहर भेजा था और आते ही उसका ब्याह बहुत उच्च व सम्मानजनक घराने में धूमधाम से करूंगा,पर आज एक आधात सा उन के दिल में आ लगा था।
उन्होंने प्रतीक को बहुत बुरा भला कह दिया था,
प्रतीक करता भी क्या कयौंकि यह आधात तो उसी का ही दिया हुआ था, सहना भी उसी को था।
जिन्दगी बस रूक गई प्रतीत हो रही थी चूंकि सपने तो प्रतीक के मन में भी बहुत थे, पिता की जायदाद का उसे लालच भी तो नहीं था,पर उसके सामने अब कोई स्पष्ट रास्ता भी तो नहीं दिख रहा था।
नौकरी करे वापिस जाए या पत्नी को यहां लाए तो कैसे लाए।
कहीं समझोता भी तो नहीं।
पिता के क्रोधी स्वभाव से तो वह बाल्यावस्था से ही डरता घबराता रहा था।
बस मां थी जिसे वह चाहता था जैसे कि मां उसे उसे चाहती है।
इस दोराहे पर सोचते सोचते उसने निर्णय ले लिया था कि वापिस जा कर नौकरी करेगा।
मां को किसी तरह से दिलासा देकर वह वापिस आ गया था।
पूरे दो बरस बीत गए थे हम लोग किराये के मकान में रहते थे और तनख्वाह से हमारा बस गुजारा ही हो रहा था, मां का फोन कभी कभी ही आता था वह हमेशां सिसकती थी हमेशां कहती थी कि इतनी बड़ी हवेली यहां वीरान पड़ी है और तुम लोग वहां एक किराये के पुराने सड़े कमरे में रह कर गुजर-बसर कर रहे हो।
मां नें यूं तो कई बार कहा था कि तुम आ जाओ पर पिता का स्वभाव वह तो नहीं आने दे रहा था।
आखिर पता नहीं कैसे एक दिन मां बहुत उदास थी मां ने पता नहीं पिता को कैसे मना लिया था कि हम लोग यहां आ जाएं, इतनी जमीन जायदाद पड़ी है, हमारे किस काम की है, शायद यही समझाया हो।
हम लोग आ गए चूंकि हम लोग भी वहां कोई बढ़िया ढंग से रह नहीं पा रहे थे।
हां प्रतीक बेहद डिप्रेशन में भी जा रहे थे, मैं प्रतीक को रोज पढ़ लेती थी समझती थी पर पीड़ा तो मुझे भी होती थी कि अपना घर तो अपना ही होता है उसे भी अपना घर छोड़ने की पीड़ा थी।
खैर हम वापिस आ गए थे,
मां ने आते ही हमें गले लगा लिया था, पिता का रूठना स्वाभाविक था।
सासु मां के गले लग कर तो मैं ससुर जी का क्रोध भी भूल गई थी,
मेरी श्रृद्धा थी या मेरा व्यवहार,
आखिर एक दिन मेरे ससुर जी ने भी हमें दिल से अपना लिया।
१०साल पहले मेरी सासु मां चल बसी पर उनका प्यार मेरे रोम-रोम में आज भी बसा हुआ है।
एक दिन बातों ही बातों में मुझे
हंसते हुए कहा था कि जब मैं मर जाऊंगी तो मेरा श्राद्ध मत करना,
बस वृद्धा आश्रम में जाकर उस दिन या कभी भी उन्हें प्रेम से अपने हाथ का बनाया हुआ खाना ही खिलाना।
बस यह है मेरे यहां आने का कारण जो मुझे हर साल बरबस मेरी सासु मां सपने में भी बता देती है
स्व रचित रचना
१२/०९/२०२०

Leave a comment