प्रस्तुति:राकेश कुमार मिश्रा

कबीर के उलट रकीब
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कबीरदास भारतीय भक्तिकाल के सबसे पहले जन्मजात तथा बड़े कवि होने के नाते साथ साथ सबसे बड़े आधुनिक भारतीय कवि और विश्व कविता को भारतीय चुनौती हैं। कबीर संभवतः अकेले कवि हैं जिन्हें एक साथ बहुविध अर्थों में धार्मिक और सेक्युलर कहा जा सकता है। धर्म का एक अर्थ मज़हब से है। इसलिए मुसलमान जुलाहा परिवार के सदस्य कबीर हिन्दू या मुसलमान दोनों होते हुए अथवा नहीं होते हुए दोनों मजहबों की पृथक पृथक सर्वोच्चता के प्रतिमान हैं। वे दोनों मजहबों की गंगा जमुनी संस्कृति के तीर्थ प्रयागराज भी हैं। सेक्युलर होने के अर्थ में कबीर भारतीय संविधान की मजहब निरपेक्षता की भावना के अनुरूप हैं। कबीर किसी मजहब के संत नहीं होने से प्रत्येक मजहब के प्रति निरपेक्ष हैं। सेक्युलर सापेक्षता के अनुसार कबीर सर्वोच्च अर्थों में धार्मिक होते हुए लगातार सेक्युलर बने रहते हैं। कबीर पहले और असरदार कवि हैं जिन्होंने मनुष्य और ईश्वर के रिश्ते को जनवादी चश्मे से देखने की कोशिश की है।

यह अजूबा है कि हिन्दू धर्म के तीन बड़े देवताओं विष्णु, शिव और ब्रह्मा की सांसारिक अवतारी उपस्थिति नहीं होने से वे दिन प्रतिदिन के आधार पर सहज उपलब्ध नहीं हैं। मिथकों के अनुसार विष्णु के दशावतारों में राम और कृष्ण का जबरदस्त प्रभाव है। राम तो ‘रामनाम सत्य है‘ सुनते मृतक संस्कार के सबसे प्रामाणिक सत्य की तरह परिभाषित हैं। उनकी सामूहिक याद किए बिना मनुष्य की मुक्ति नहीं होने का जनविश्वास है। कृष्ण राम की तरह अंतिम या पूर्ण सत्य तो नहीं हैं लेकिन राम से कहीं अधिक व्यापक फलितार्थों के कृष्ण जीवन की सांसों की धड़कन हैं। मनुष्य जीवन के जितने रूप हैं वे सब कृष्ण की सांसों से अनुप्राणित हैं। हिन्दू धर्म की मिथक कथाओं में सतरंगी झिलमिलाहट है। वहां आंसुओं और रुदन को भी कला की पारंगतता का साधन बना दिया गया है। कृष्ण की मुस्कराहट जीवन में सार्थक है लेकिन आदर्शोें के प्रति प्रतिबद्ध तथा सीता के वियोग में रोते हुए राम का चेहरा मनुष्य होने की गंभीरता का सबसे मजबूत शिलालेख है।

राम और कृष्ण के अमर चरित्रों को भारतीय अस्मिता और यादघर में कबीर, रहीम, तुलसीदास, सूरदास, जायसी और रसखान जैसे अमर कवियों ने इतिहास की स्याही से वक्त के माथे की लकीरें बनाकर लिखा है। इनमें भी कबीर सबसे पहले हुए हैं। ऐसे हुए हैं कि अब तक सबसे पहले ही हैं। नायकों के गुणों का बखान करना और वीरपूजा के जुमले में काव्य का सृजन करना विश्व साहित्य की परंपरा है। भारत के आदिकवि वाल्मीकि और यूनानी महाकाव्यों के प्रणेताओं ने यही सब कुछ किया है। ऐसा करना एक परंपरा की शुरुआत की मील का पत्थर है। कबीर ने संसार के इतिहास में सबसे पहले और प्रामाणिक कवि के रूप में इस तिलिस्म को तोड़ दिया। कबीर के लिए ईश्वर है भी और नहीं भी। यदि है तो वे उसे मनुष्य होने का प्रमाणपत्र देते हैं। मनुष्य में ईश्वरत्व ढूंढ़ना एक उदात्त और उदास भावना एक साथ है। ईश्वर को इंसान बनाने की कोशिश कबीर की कविता का अद्भुत आचरण है।

सबसे बड़े दार्शनिक दीखते कबीर सांसारिक जीवन को आत्मा के लिहाफ या चादर की तरह ओढ़ते हैं। औरों के जीवन में रंगों, छटाओं, विवरणों और उपलब्धियों का बखान होता होगा। कबीर की निर्विकार्यता कविता के साकार होने का सबसे बड़ा यत्न है। चमत्कार वह नहीं है जो चमत्कार की तरह महसूस हो। चमत्कार तो वह है जिसमें कुछ भी नायाब, अनायास या सहसा नहीं हो। फिर भी वह मन में स्फुरण पैदा कर दे। कबीर सुसंस्कृत भाषा, व्याकरण, प्रतिमानों, स्वीकृत मानदंडों और समयसिद्ध रूपकों को झुठलाते सहज बखानी करते हैं। सहजता बडे दार्शनिक सत्यों को कैसे जन्म देती है। इस रहस्य को बूझने के लिए कबीर की कविता के सामने नैतिक आचार्यों को भी घुटने टेकने पड़ते हैं।

जीवन, साहित्य, अस्तित्व और अंर्तदृष्टि के एकमात्र पडाव का नाम है सत्य। सत्य वह हवा है जिसे मुट्ठी में बंद किया जा सकता है। लेकिन ऐसी कोई मुट्ठी होती कहां है। हवा तो लेकिन होती है। सत्य वह धुआं है जिस पर चढ़कर अंतिम होने की अटारी तक पहुंचा जा सकता है। अटारी तो होती है लेकिन वैसा धुआं पैदा करने वाली आग कहां है। सत्य तो नदी की खिलखिलाहट का सतरंग है। पानी की शीतलता और बहाव में नदी की किलकारी अप्रतिहत गूंजती है लेकिन उसकी अंर्तध्वनि में अनहद नाद के गूंजने को तरन्नुम की तकनीक से फारिग होकर कौन आत्मसात कर पाता है। यदि ये सब चमत्कार, निष्कर्ष या अंतिम होने के समानार्थी समीकरण हैं तो यह सवाल पूरी दुनिया में सबसे बेहतर, सबसे प्रामाणिक विधि से और भविष्य तक की पीढ़ियों को चुनौतीविहीन और निर्विकल्प बनाते कबीर ही क्यों नज़र आते हैं।

सत्ताकुलीन समाज द्वारा कबीर की सीख की दुर्गति की जा रही है। मुसलमान और ईसाई को जबरिया हिन्दू बनाकर उस प्रक्रिया को घर वापसी कहा जा रहा है। कबीर तो आत्मा और परमात्मा तक की घर वापसी के फेर में नहीं थे। उन्होंने तो अपने दुनियावी चरित्र को सफेद धुली बिना दाग वाली चादर की तरह जैसे का तैसा रख देने की सूचना दी थी। उनके लिए तो महानता भी एक विकार है जो मनुष्य के चरित्र को अतिरंजित करती है। सत्य के अन्वेषक कबीर उस अनहद नाद में लीन हो गए थे जो अंर्तयात्रा किसी को भी पाथेय तक पहुंचा सकती है। ‘कूढ़ मगज़ हिन्दू‘, ‘लव जेहाद‘, ‘आमिर खान की फिल्म   पी.के.‘, ‘कश्मीर की विशेष संवैधानिक स्थिति‘, ‘समान नागरिक संहिता‘, ‘मदरसों की तालीम‘ और इसके बरक्स कूढ़ मगज़ मुसलमान, आतंकवादियों, लखवी, मुहम्मद उमर, अल जवाहिरी, हाफिज़ सईद वगैरह को लेकर संदिग्ध आचरण करते हैं। कबीर से बेहतर सेक्युलरवाद की परिकल्पना भारतीय संविधान में भी नहीं है। संविधान तो सेक्युलरवाद के नाम पर अलग अलग कोष्ठकों में धर्मगति को नियंत्रित करता है। कबीर मुफलिस थे अर्थात आत्मा के निर्द्वंद  गायक। मौजूदा राजसत्ता उनके सही अर्थ को नहीं बूझती हुई उलटबांसी में रकीब का आचरण कर रही है।

छत्तीसगढ़ में कबीर-परम्परा की अपनी रस, गन्ध की समृद्धि है। कबीर का इस प्रदेश छत्तीसगढ़ पर असर बहुत गहरा है। कई कबीर गद्दियां धर्माचार्य उपासक अनुयायी तो हैं ही। गुरु घासीदास के प्रचारित जीवन दर्शन में भी कबीर की वाचाल अनुगूंज है। आशय यह नहीं कि धर्मगद्दियां बना दी जायें अथवा कबीर को पाठ्यक्रमों में शामिल कर दिया जाये या रस्मअदायगी के कबीर महोत्सव मनाए जाएं। ‘सरकार‘ नामक शब्द संविधान की तथा ‘समाज‘ नाम का शब्द पारंपरिक निरन्तरता है। भारतीय लोकतन्त्र के निकष के रूप में कबीर का मानवधर्म धर्मनिरपेक्षता का भी सबसे बड़ा मनुष्य आचरण है। यह क्यों हुआ कि संविधान सभा में सेक्युलरिज़्म के इतिहास पर चर्चा में सबसे प्राथमिक और आधुनिक कबीर-विचार का उल्लेख किसी सदस्य ने नहीं किया। मध्य युग के सन्तों के उल्लेख भारतीय समाज की एकता के सूत्रों की तरह अलबत्ता हुए हैं। नये किस्म की धर्मनिरपेक्षता को यूरो-अमेरिकी माॅडल पर आधारित लोकतन्त्र की प्राण वायु की तरह जरूरत है। ऑक्सीजन का वह सिलेन्डर संभवतः सबसे पहले कबीर ने ही बनाया था। सेक्युलरिज़्म शब्द इतना चोटिल हो गया है कि अतिउत्साही हिन्दू उसे मुख्यतः मुसलमान और कभी कभी ईसाई का समानार्थी बताने लगते हैं। भारत जैसे बहुलधर्मी या सांस्कृतिक बहुलता के अनोखे मुल्क में सेक्युलरिज़्म के कई अर्थ हैं। कुछ के लिए वह हिन्दू विरोधी है। इसलिए अल्पसंख्यकपरस्त, तो कुछ के लिए वह धर्मविमुख है। कुछ के लिए वह सभी धर्मों की काॅकटेल है। कुछ के लिए वह धर्मनिरपेक्षता की यूरोपीय समझ की प्रतिकृति है। सेक्युलरिज़्म सम्बन्धी किसी बड़े प्रकल्प को कबीर के नाम से जोड़कर शुरू किया जाये तो ऐसे ही किसी आयोजन में हर वर्ष संवैधानिक नस्ल की धर्मनिरपेक्षता की वास्तविकता और उपादेयता को लेकर शोध का सिलसिला शुरू किया जा सकता है। शोध में बोध का होना सदैव जरूरी होता है। साहित्य तो वही है जो धर्मनिरपेक्ष है। कबीर ने समाजोन्मुख ‘मीठा मीठा गप‘ नहीं किया, ‘कड़वा कड़वा थू‘ भी किया।

प्रस्तुति:राकेश कुमार मिश्रा

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