आज़ादी

     — डॉ बबिता गर्ग सहर
कविता पाठ करेगी,मंच पर जाकर पराये मर्दों के साथ बैठेगी। नहीं बिलकुल नहीं। मेरे घर में यह सब नहीं चलेगा। नीलेश की आवाज़ आज भी दुर्गा को रह रह कर झकझोर देती है। कितनी चाहत थी कविता पाठ करने की। विधालय में ,कॉलेज में हमेशा काव्य पाठ में प्रथम आती थी। विवाह क्या हुआ ,गुलाम हो गयी।
यहाँ नहीं जाना। ऐसे नहीं बैठो। जोर से क्यों हँसती हो ?उफ़ कितनी बंदिशें !लेकिन क्या करे ?बच्चों का भविष्य भी तो देखना था।
अचानक घंटी की आवाज़ से दुर्गा की तंद्रा टूटी। बेटी थी दरवाजे पर।
मुरझाया चेहरा देख बेटी सब समझ गयी।
माँ,आज पंद्रह अगस्त है। आज के दिन हमे आजादी मिली थी। सब कहते हैं। तुम भी आज आजाद हो ही जाओ। बेटी ने कागज कलम दुर्गा को पकड़ाते हुए कहा।
और दुर्गा की आँखों में आजादी की मशाल जल उठी। 

डॉ बबिता गर्ग सहर

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