विजयदशमी

                   —-भास्कर सिंह माणिक
रावण के पुतले को
हर वर्ष जलाया जाता है
पर कंस आचरण नित्य यहां
अपनाया जाता है
सदाचरण की बातें केवल
कोरे कागज पर अंकित
बेबस और लाचारों को
हर रोज सताया जाता है
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      जटायु ( गिध)का त्याग
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सीय उठाए विमान में बैठ के
सो नारि हरे लयं जात दिखानों
रघुकुल तिलक निहार के गीध
सीय की चीख को शब्द सुनानों
क्रोध भरे रण आतुर गीध
सो जाय भिड़ो रावण अकुलानों
रावण वक्ष बिदार के गीध
सो कंठ पै चोट करी खिसयानों

रावण त्याग विवेक को ध्यान
सो चोट पै चोट करो मन मानों
पंखहि काट दये खल ने
भू मांहि डरो प्रभु ने पहचानों

राम उठाए के गीध को गोद में
मोद जटायु हिय हरसानों
राम के नेंनन नीर को देखकें
पीर को भूल कें घाव सिरानों

राम की ओर निहार के माणिक
राम को रुप हिय में समानों
जो गति दशरथ नाहिं  मिली
सो कृपा कर कृत्य कर सनमानों

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मैं घोषणा करता हूं कि यह रचना मौलिक स्वरचित है।
      भास्कर सिंह माणिक,कोंच

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