चंचल हरेंद्र वशिष्ट

आज मैं,
यादों की गुल्लक लिए
बैठी हूँ अरमान लिए
खोलकर निकाल लूँ सब
या
रहने दूँ?
अभी और सहेज लूँ इसमें अनगिनत पल खुशियों के!
नहीं….उत्साहित हूँ, उत्सुक हूँ….अब तक जो जमा किया…..देख लूँ जल्दी से!
बस अब नहीं रहा जा रहा…और ….
खुलते ही अंबार लग गया…
पंजी,दस्सी,चवन्नी,अठन्नी और अभी डाले कुछ एक,दो के और दस -पाँच रुपये के सिक्कों का!
पर….पंजी,दस्सी,चवन्नी और अठन्नी वाली बात कहाँ रह गई अब दस रुपये के सिक्के में….. जिसे माँ और पापा से लेकर ऐसे उछलते कूदते थे मानों खज़ाना मिल गया…..आज दस,बीस ,पचास रुपये लेकर भी बच्चों के चेहरे पर वो खुशी वाली चमक नहीं….
यादों की गुल्लक से निकले वो पल बीते दौर के, वो नन्हीं नन्हीं सी खुशियाँ, वो हँसी मज़ाक, वो पुराने पर सुहाने दिनों की अनकही बातें और ढेर सारा अपनों का प्यार! ये दौलत कम न थी….मुझसे बड़ा अमीर इस पल कोई न था।
🙏🙏
चंचल हरेंद्र वशिष्ट

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