सुभाष अरोड़ा

— सुभाष अरोड़ा
विछोह
जीवन आगे बढ़ रहा है पर समझ में नहीं आता कि यह कैसे आगे बढ़ रहा है चूंकि हम तो वहीं पर रूके हुए हैं जहां से हमनें सफर शुरू किया था फिर ऐसा क्या था कि जो वक़्त आगे बढ़ता जा रहा था,रूक नहीं रहा था।
समझ नहीं पा रहे थे या कुछ और था जो समझ से परे था।
अच्छा भला पता है कि जीवन एक भरोसा है एक दूसरे पर,पर भरोसा क्यों है कैसे है क्या है, लगता है कि कोई सोचों का पर्दा भारी पड़ गया हो और उभर कर सामने ना आ पा रहा हो।
मैं एक ऐसे दोराहे पर खड़ा था कि मैं कैसे अपनों के घरों में घुस कर आखिर क्या कर सकता हूं,पर मजबूरी थी।
मेरे बचपन का दोस्त रमन ए क्लास आफिसर था और बचपन से लेकर उसकी शादी तक मैं उसके साथ साय की तरह खड़ा रहा था। उसकी शादी बड़े धूमधाम से व बड़ी शानो-शौकत से हुई थी मेरी भाभी रश्मी भी उच्च पद पर थी, हमारी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था।
दो तीन साल बड़े खुशियों में बीते। सभी के सभी बस खुश ही खुश थे, भाभी की प्रमोशन हो गई थी और वह मेरे दोस्त से भी ऊंची पोस्ट पर विराजमान हो चुकी थी। हां तब तक एक बेटी व एक बेटे के मां बाप भी वे बन चुके थे।
हम इसलिए खुश हो रहे थे कि किस्मत, बच्चे, प्रमोशन यह सब आने वाले सुनहरे भाग्य का प्रतीक है और यह जीवन सुनहरा जीवन है।
पता नहीं कभी कभी कालचक्र भी उल्टा क्यों हो जाता है, आदमी की समझ से बाहर है इसे समझना।
वक़्त बीतता रहा मैं भी अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो चुका था और दूर ही कहीं मेरी पोस्टिंग थी सो फोन के अलावा कभी ज्यादा बात नहीं हो पाती थी।
वर्षों बीत गए थे, कभी कभार ही अब बातें हो जाती थी। परन्तु कुछ वर्षों से बराबर यह अहसास हो रहा था कि रमन मुझसे कुछ नहीं बहुत कुछ छुपा रहा है थोड़ी सी बात होते ही भाभी का नाम आते ही उसकी आवाज कुछ धीमी पड़ जाती थी।
बात तो मैं कभी-कभार रश्मी भाभी से मैं कर लेता था वो कभी भी नहीं करती थी।
और इसमें ही मुझे उनके बारे में कुछ अनुभूति हो जाती थी कि कहीं कुछ खामोशी जरूर है।
आज अचानक मैं चोंक पड़ा था,
दीपिका का फोन था, दीपिका रमन की बेटी थी और वह एक अच्छी एम एन सी कंपनी में मैनेजर बन चुकी थी।असल में उसकी दादी ने ही उसे पाला पोसा था। बच्चे तो बच्चे ही होते हैं हमारी नजर में,चाहे वे कितने भी बड़े ओहदे पर पहुंच जाएं।
दीपिका ने मुझे आग्रह किया था कि मैं किसी भी तरह से उसकी शादी उसके मनपसंद लड़के से करवा दूं।
लड़का अलग जाति का है और कोई रिश्तेदार भी इस मामले में नजदीक आना ही नहीं चाहता।
आज मूझे एहसास हुआ कि
रमन और रश्मि कई वर्षों से एक दूसरे से अलग रह रहे हैं इसीलिए बच्चों को यह दिन देखने को मिल रहे हैं,
मैं सोचने लगा कि ऐसे मां-बाप परमात्मा ने पैदा ही क्यों किए जो अपनी खुद की पैदा की हुई औलाद को जीवन का वह सुख बस इसलिए नहीं दे सके कि उनमें
दोनों में मैं बसी हुई है।
मैं बड़ा हूं या कि मैं बड़ी हुं,पर आज यह दिन देख कर मेरी नज़र में वो दोनों गिर चुके थे।
समझ नहीं आ रहा था कि पैसा और ओहदा क्यों मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देता जैसे वे पिछले पुराने बुरे कर्मों का हिसाब चुकता कर रहे हों।
खैर ज्यादा सोचना मेरे लिए भी एक आघात के बराबर था
मुझे तो बस बच्ची के बारे में सोचना था, दीपिका से मैंने प्रेम से सारी बातचीत की और लड़के से व लड़के के माता-पिता से बात कर ली
मैं आश्वस्त हो गया था कि वे लोग वास्तव में ही मिलनसार स्वभाव के लोग हैं। मैंने तुरंत रमन से बात की,रमन ने रुआंसे से मुझे कह दिया कि करो यार कम से कम बच्चे तो हमारी दुःख भरी जिंदगी से दूर हो कर सुख से जी सकें।
व्यथा का रुआंसा रुप था यह।
तुरंत मैंने रश्मि भाभी से भी बात कर ली, दोनों ने उदासीन सा उत्तर दिया था, शायद दोनों ही एक ही राय से इत्तफाक रखते थे।
कैसी विडम्बना थी कि सारी उम्र मैं में बिता दी पर शुक्र था कि बच्चों के प्रति उनकी राय दयालु थी
आकाश जो दीपिका का होने वाला पति था उसे दीपिका ने पहले ही घर की स्थिति के बारे में अवगत करवा दिया था,खैर सभी समझदार व अच्छे आदर्श लोग थे।
उनके साथ मिलकर सारे प्रोग्राम बनाये और रूठे माता पिता को रुठे ही रहने दिया चूंकि अभी भी वे दोनों अपनी मैं में ही जी रहे थे।
शादी का दिन तय कर दिया गया था और शादी बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है मेहमानों के सामने, मां बाप चाहे कितने भी विपरीत हों एक दूसरे के,पर उन्हें कहा गया कि तुम इस नाटक में बस अभिनय ही करोगे उससे अधिक कुछ नहीं।
आंसू तो वहां थे ही नहीं,कहां से आते, वे तो आखिर अन्दर से ही निकलते हैं बड़े सूक्ष्म भावों से।
आखिर विवाह होना ही था और यदा कदा कैसे भी सम्पन्न हो गया।
किसी को कुछ भी आभास होता रहे और हुआ भी होगा, चूंकि जो लोग नजदीक रहते हैं आंच उन्हीं से उभर कर बाहर आती है।
खैर एक जिन्दगी दो प्रेमभरे दिलों में बस गई,मैनै सकून की सांस ली थी।
बस अब तक मैं भी अन्दर तक थक गया था, मैं इसमें कौन था मैं सोच रहा था।पर बुराई के बाद कभी न कभी अच्छाई भी आती है।
यह सिलसिला रूका नहीं।
दीपिका ने ही मुझे फोन पर बताया कि एक और परमार्थ का काम करना है, दीपिका की फैमिली में से ही एक लड़की ने सचिन जो दीपिका का भाई था उसे पसंद कर लिया था।
एक और जिम्मेदारी आ पड़ी थी मुझपर,और जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ना मुझे भी नहीं आता था बस पहले की तरह वही नाटय दोहराया गया था और एक जीवन और था जो सुनहरे पलों का हो गया था,रम गया था अपनी जिंदगी में सहज से।
पर मैं सोच रहा था कि वो जो दो आत्माएं परमात्मा ने प्रेम करने धरती पर भेजी थी वे तो विछोह में ही मर गई।
क्यौं?
इसका उत्तर मेरे पास आज भी नहीं है
स्व रचित रचना. — सुभाष अरोड़ा
१०/०९/२०२०

Leave a comment