प्रस्तुति:- मंगल सिंह

एक फरिश्ता

मैं कईं दिनों से बेरोजगार था , एक एक रूपये की कीमत जैसे करोड़ों लग रही थी , इस उठापटक में था कि कहीं नौकरी लग जाए।

आज एक इंटरव्यू था , पर दूसरे शहर जाने के लिए जेब में सिर्फ दस रूपये थे . मुझे कम से कम दो सौ रुपयों की जरूरत थी।

अपने इकलौते इन्टरव्यू वाले कपड़े रात में धो , पड़ोसी की प्रेस माँग के तैयार कर पहन , अपने योग्यताओं की मोटी फाइल बगल में दबाकर , दो बिस्कुट खा के निकला।

लिफ्ट ले , पैदल जैसे तैसे चिलचिलाती धूप में तरबतर . बस ! इस उम्मीद में स्टेंड पर पहुँचा कि शायद कोई पहचान वाला मिल जाए , जिससे सहायता लेकर इन्टरव्यू के स्थान तक पहुँच सकूँ।

काफी देर खड़े रहने के बाद भी कोई नहीं दिखा . मन में घबराहट और मायूसी थी , क्या करूँगा अब कैसे पँहुचूगा ?

पास के मंदिर पर जा पहुंचा , दर्शन कर सीढ़ियों पर बैठा था.

मेरे पास में ही एक फकीर बैठा था , उसके कटोरे में मेरी जेब और बैंक एकाउंट से भी ज्यादा पैसे पड़े थे ! !!

मेरी नजरें और हालात समझ के बोला , “कुछ मदद चाहिए क्या ?” मैं बनावटी मुस्कुराहट के साथ बोला , “आप क्या मदद करोगे ?”

“चाहो तो मेरे पूरे पैसे रख लो .” वो मुस्कुराता बोला . मैं चौंक गया ! !! उसे कैसे पता मेरी जरूरत !

मैनें कहा “क्यों …?

“शायद आपको जरूरत है” वो गंभीरता से बोला।

“हाँ है तो , पर तुम्हारा क्या , तुम तो दिन भर माँग के कमाते हो ?” मैने उस का पक्ष रखते हुए कहा.

वो हँसता हुआ बोला , “मैं नहीं माँगता साहब ! लोग डाल जाते हैं मेरे कटोरे में . पुण्य कमाने के लिए !

मैं तो फकीर हूँ , मुझे इनका कोई मोह नहीं . मुझे सिर्फ भूख लगती है , वो भी एक टाइम . और कुछ दवाइयाँ . बस !

मैं तो खुद ये सारे पैसे मंदिर की पेटी में डाल देता हूँ .” वो सहज था कहते कहते।

मैनें हैरानी से पूछा , “फिर यहाँ बैठते क्यों हो..?”

“जरूरतमंदों की मदद करने ! !!” कहते हुए वो मंद मंद मुस्कुरा रहा था।

मैं उसका मुँह देखता रह गया ! !! उसने दो सौ रुपये मेरे हाथ पर रख दिए और बोला , “जब हो तब लौटा देना .”

मैं उसका शुक्रिया जताता हुआ वहाँ से अपने गंतव्य तक पँहुचा . मेरा इंटरव्यू हुआ और सलेक्शन भी।

मैं खुशी खुशी वापस आया, सोचा उस फकीर को धन्यवाद दे दूँ ।

मैं मंदिर पँहुचा , बाहर सीढ़़ियों पर भीड़ लगी थी , मैं घुस के अंदर पँहुचा , देखा वही फकीर मरा पड़ा था।

मैं भौंचक्का रह गया ! मैने दूसरों से पूछा यह कैसे हुआ ?

पता चला , वो किसी बीमारी से परेशान था . सिर्फ दवाईयों पर जिन्दा था . आज उसके पास दवाइयाँ नहीं थी और न उन्हें खरीदने के पैसे !

मैं अवाक सा उस फकीर को देख रहा था ! अपनी दवाईयों के पैसे वो मुझे दे गया था . जिन पैसों पे उसकी जिंदगी का दारोमदार था , उन पैसों से मेरी ज़िंदगी बना दी थी….!

भीड़ में से कोई बोला , अच्छा हुआ मर गया। ये भिखारी भी साले बोझ होते हैं , कोई काम के नहीं….!

मेरी आँखें डबडबा आयी !

वो भिखारी कहाँ था , वो तो मेरे लिए भगवान ही था . नेकी का फरिश्ता . मेरा भगवान !

मित्रों, हममें से कोई नही जानता कि भगवान कौन हैं  और कहाँ हैं ? किसने देखा है भगवान को ? बस ! इसी तरह मिल जाते हैं।
प्रस्तुति:- मंगल सिंह
          कानपुर देहात,यू.पी.

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