कुछ क़तआत

प्रस्तुति: राकेश कुमार मिश्रा
अमलदार नीहार
हिन्दी विभाग
श्री मुरली मनोहर टाउन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बलिया

(1)
इधर जमहूरियत का क़त्ल कि उधर है दौरे-जामो-जश्न
सुना है कि हुजूर किसी रक्कासा की दर पे जा बैठे हैं।

(2)
किसी भी खोल में रहो, किसी भी खाल में, छिप नहीं सकते,
ज़माने की काइयों पे काइँयों को फिसलते देखा है।

(3)
तुम मदारी के कहे हर झूठ को सच मान लेते हो!
क्या कभी सोचा ये तुमने–‘कि आदमी हो, बन्दर नहीं हो ‘

(4)
जब  तुम  किसी की हाँ में हाँ बस मिलाने लगो
‘आदमी नहीं रह गये’, खुद को जगाने लगो।

(5)
तेरी चुप्पियाँ बहुत महँगी, इसे इतिहास लिक्खेगा
सदियाँ आगे निकल जायेंगी, तू यहीं रह जायेगा।

(6)
बर्फ की चट्टान पे ठिठके क़दम,तू थम गया
आँधियाँ, तूफान ओले, विजलियाँ भी सीस पर

(7)
आग से ना खेल ऐसे, कि हाथ ये जल जायेगा
नज़रें उठा के देख ले, कुछ दूसरों से सीख भी।

(8)
सोच ग़र बौनी बहुत,जे़हन अगर शैतान का
फिर बला की आँधियाँ, जुल्मो-सितम के सिलसिले

(9)
वक़्त की चट्टान से टूटी  पड़ी हैं पसलियाँ
कौन कहता फिर रहा–‘फिरदौस की ये सीढ़ियाँ’?

(10)
आब-दाने पर खड़ा संकट बड़ा है सामने
कीर-केकी, पिक-पपीहे, हंस जायें अब कहाँ?

(11)
उनको कहो बेशर्म, नंगे भी, बहुत मुँहजोर भी
क़ानून के पाबन्द भी वो और काले चोर भी।

(12)
हैं यार किसके वो,कहो जो खु़दग़रज़ मक्कार हैं,
नोश फर्माइये मियाँ मय, वे भी लालःज़ार हैं।
रचनाकाल : 9 जनवरी, 2021
बलिया, उत्तर प्रदेश
[आबेहयात(ग़ज़ल-संग्रह)-अमलदार नीहार]

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